चंपावत की आदमख़ोर बाघिन की सच्ची कहानी – जिसने 436 लोगों की जान ली

नेपाल से शुरू हुई थी मौत की यह कहानी…
1900 की शुरुआत में नेपाल के एक घने जंगल में एक बाघिन ने इंसानों का शिकार करना शुरू किया। पहले तो लोगों ने इसे सामान्य समझा, लेकिन जैसे-जैसे मौतों की संख्या बढ़ी, लोगों के बीच डर फैलने लगा। यह बाघिन अब कोई आम शिकारी नहीं रह गई थी — यह अब आदमख़ोर बन चुकी थी।
नेपाल में जब इस बाघिन ने लगभग 200 से अधिक लोगों को मार डाला, तब वहाँ के राजा ने उसे मारने के आदेश दिए। कई प्रयासों के बावजूद जब बाघिन पकड़ी नहीं गई, तो आखिरकार नेपाली प्रशासन ने उसे भगाने के लिए सशस्त्र बल भेजे।
सीमा पार कर पहुँची भारत – और बना चंपावत उसका नया ठिकाना
नेपाल से भागकर वह बाघिन भारत के उत्तराखंड (तत्कालीन कुमाऊं) के चंपावत क्षेत्र में आ गई। लेकिन यहाँ आकर भी उसका खूनी खेल नहीं रुका। उसने गाँवों के पास रहने वाले मासूम लोगों को निशाना बनाना शुरू कर दिया।
लोग खेतों में जाना छोड़ चुके थे, बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया गया था, और सूरज ढलने से पहले ही पूरा इलाका वीरान हो जाता था। हर कोई उस “मौत की बाघिन” से खौफ खाता था।
नेपाल में जब इस बाघिन ने लगभग 200 से अधिक लोगों को मार डाला, तब वहाँ के राजा ने उसे मारने के आदेश दिए। कई प्रयासों के बावजूद जब बाघिन पकड़ी नहीं गई, तो आखिरकार नेपाली प्रशासन ने उसे भगाने के लिए सशस्त्र बल भेजे।
कुल 436 हत्याएँ – एक वक़्त में विश्व की सबसे ख़तरनाक बाघिन
सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, इस बाघिन ने नेपाल और भारत मिलाकर कुल 436 लोगों की जान ली। यह अब तक की सबसे ज़्यादा इंसानी हत्याएँ करने वाली बाघिन मानी जाती है।
इसलिए इसे दुनिया की “Deadliest Man-Eater” भी कहा गया।
तब जिम कॉर्बेट की एंट्री हुई

उस समय के स्थानीय प्रशासन ने कई शिकारी भेजे लेकिन सब नाकाम रहे। तब ब्रिटिश प्रशासन ने प्रसिद्ध शिकारी और वन्यजीव प्रेमी जिम कॉर्बेट से संपर्क किया।
कॉर्बेट उस समय मोकामा घाट (बिहार) में रेलवे विभाग में काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी —
“ना तो कोई साथ चलेगा, ना कोई हस्तक्षेप करेगा, और ना ही बाघिन को जहर दिया जाएगा।”
प्रशासन ने यह सभी शर्तें मानीं, और इस तरह शुरू हुआ कॉर्बेट का सफर — बिहार से उत्तराखंड तक।
चालाकी में एक कदम आगे थी बाघिन

कॉर्बेट ने कई बार बाघिन को पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वह हर बार बच निकलती।
उन्होंने जाल बिछाए, पेड़ों पर छिपकर इंतज़ार किया, लेकिन बाघिन हमेशा अलग इलाके में हमला कर देती थी।
एक बार जब वे जंगल में जाल लगाकर बैठे थे, उसी समय बाघिन गाँव के दूसरे सिरे पर हमला कर चुकी थी।
यह साबित करता है कि वह ना सिर्फ आदमख़ोर थी, बल्कि असाधारण रूप से चालाक भी थी।
आख़िरकार 12 मई 1907 – मौत का आख़िरी दिन

1 मई से 10 मई 1907 के बीच बाघिन ने फिर 5 लोगों की जान ले ली।
जिम कॉर्बेट को समझ आ गया कि अब सिर्फ फंदा या गोली नहीं चलेगी, उसे उसी समय मारा जा सकता है जब वो किसी शिकार को खा रही हो।
12 मई की शाम, जब गाँव के लोग बाहर बैठे थे, तभी बाघिन ने फिर हमला किया — इस बार एक किशोरी लड़की को उठा ले गई।
जिम कॉर्बेट ने तुरंत गाँववालों को इकट्ठा किया और लगभग 300 लोगों के साथ उस बाघिन का पीछा किया।
उन्होंने गाँववालों को एक लाइन में फैलाकर एक बीट (घेरा) बनाया ताकि बाघिन को खदेड़ा जा सके।
कॉर्बेट घाटी में अकेले खड़े थे, तभी झाड़ियों से बाघिन उन पर झपटी।
कॉर्बेट ने तीन गोलियाँ चलाईं, दो गोलियाँ बाघिन को लगीं लेकिन वह भाग निकली।
जब वह घायल बाघिन दूसरी बार सामने आई और हमला करने लगी, तब कॉर्बेट ने चौथी गोली चलाई — और उसका अंत हो गया।
क्यों बनी थी बाघिन आदमख़ोर?
जब कॉर्बेट ने मारी गई बाघिन की जाँच की, तो उन्हें पता चला कि उसके जबड़े में पुरानी गोली लगी हुई थी और उसके कई दाँत टूट चुके थे।
वह अब अपने प्राकृतिक शिकार जैसे हिरण, जंगली सूअर का शिकार नहीं कर सकती थी।
इसलिए मजबूरी में उसे इंसानों का आसान शिकार चुनना पड़ा।
कॉर्बेट की ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट
इस घटना ने जिम कॉर्बेट की सोच पूरी तरह बदल दी।
उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ कि एक बाघिन को मजबूरी में इंसानों को मारना पड़ा।
इसके बाद उन्होंने यह संकल्प लिया कि वह अब मनोरंजन के लिए कभी शिकार नहीं करेंगे।
वह सिर्फ उन जानवरों को मारेंगे जो आदमख़ोर बन चुके हैं।
इसलिए मजबूरी में उसे इंसानों का आसान शिकार चुनना पड़ा।
वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्टर बने कॉर्बेट

कॉर्बेट ने अपने जीवन का अंतिम शिकार 1938 में किया — ठाक की बाघिन।
इसके बाद वे पूरी तरह से वन्यजीवों के संरक्षण में लग गए।
उन्होंने [हैली नेशनल पार्क] के संरक्षण में अहम भूमिका निभाई, जिसे आज हम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के नाम से जानते हैं।
निष्कर्ष
चंपावत की आदमख़ोर बाघिन की कहानी सिर्फ एक शिकारी और शिकार की कहानी नहीं है।
यह उस संघर्ष की कहानी है जहाँ एक जानवर मजबूरी में आदमख़ोर बना और एक इंसान ने समझदारी और संवेदनशीलता से उसका अंत किया।
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि हर शिकारी जानवर खतरनाक नहीं होता — कभी-कभी इंसान की लापरवाही से जानवर भी रास्ता बदल लेते हैं।
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